भारत में न्यायिक सक्रियता: एक बदलता परिदृश्य

परिचय: न्यायिक सक्रियता भारतीय न्यायपालिका का एक महत्वपूर्ण पहलू रहा है। यह अवधारणा न्यायालयों द्वारा सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों की रक्षा के लिए सक्रिय भूमिका निभाने से संबंधित है। हालांकि इसकी आलोचना भी होती रही है, न्यायिक सक्रियता ने भारत में कई महत्वपूर्ण सुधारों को जन्म दिया है। आइए इस विषय पर एक गहन नजर डालें।

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जनहित याचिका का उदय

1980 के दशक में जनहित याचिका (पीआईएल) की अवधारणा का विकास न्यायिक सक्रियता का एक महत्वपूर्ण मोड़ था। इसने आम नागरिकों को न्यायालय तक पहुंच प्रदान की और सामाजिक मुद्दों पर न्यायिक हस्तक्षेप को बढ़ावा दिया। पर्यावरण संरक्षण, श्रमिक अधिकार और मानवाधिकारों से जुड़े कई मामलों में पीआईएल ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उदाहरण के लिए, एम.सी. मेहता बनाम भारत संघ केस में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रदूषण नियंत्रण के लिए दिशा-निर्देश जारी किए।

न्यायिक सक्रियता के प्रमुख क्षेत्र

न्यायिक सक्रियता के कुछ प्रमुख क्षेत्र रहे हैं:

  1. पर्यावरण संरक्षण: न्यायालयों ने पर्यावरण संरक्षण के लिए कई महत्वपूर्ण आदेश दिए हैं, जैसे वाहनों में सीएनजी का उपयोग अनिवार्य करना।

  2. मानवाधिकार: यातना, अवैध हिरासत जैसे मुद्दों पर न्यायालयों ने सख्त रुख अपनाया है।

  3. भ्रष्टाचार निरोध: 2जी स्पेक्ट्रम और कोयला आवंटन घोटालों में न्यायालय के हस्तक्षेप ने भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई को मजबूत किया।

  4. चुनाव सुधार: उम्मीदवारों की आपराधिक पृष्ठभूमि की घोषणा अनिवार्य करना इसका एक उदाहरण है।

  5. लैंगिक न्याय: यौन उत्पीड़न के खिलाफ विशाखा दिशानिर्देश इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम थे।

न्यायिक सक्रियता की आलोचना

न्यायिक सक्रियता की आलोचना भी होती रही है। कुछ प्रमुख आलोचनाएं हैं:

  1. शक्तियों का पृथक्करण: आलोचकों का कहना है कि न्यायपालिका विधायिका और कार्यपालिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप कर रही है।

  2. न्यायिक अतिरेक: कुछ का मानना है कि न्यायालय अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर नीतिगत निर्णय ले रहे हैं।

  3. कार्यान्वयन की समस्या: कई बार न्यायालय के आदेशों का प्रभावी कार्यान्वयन नहीं हो पाता।

  4. विशेषज्ञता का अभाव: तकनीकी और वैज्ञानिक मुद्दों पर न्यायाधीशों की विशेषज्ञता पर सवाल उठाए जाते हैं।

वर्तमान रुझान और भविष्य की दिशा

वर्तमान में न्यायिक सक्रियता के स्वरूप में बदलाव देखा जा रहा है। न्यायालय अब अधिक संतुलित दृष्टिकोण अपना रहे हैं और नीतिगत मामलों में हस्तक्षेप से बच रहे हैं। उदाहरण के लिए, आधार मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने इसकी वैधता को बरकरार रखा, लेकिन साथ ही निजता के अधिकार की रक्षा के लिए कुछ प्रावधानों को खारिज किया।

भविष्य में, न्यायिक सक्रियता के नए क्षेत्रों जैसे डिजिटल अधिकार, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के नैतिक उपयोग और जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए कानूनी ढांचे के विकास पर ध्यान केंद्रित होने की संभावना है।

निष्कर्ष

न्यायिक सक्रियता भारतीय लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण स्तंभ रही है। इसने सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों की रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हालांकि इसकी आलोचना भी होती रही है, लेकिन इसके सकारात्मक प्रभावों को नकारा नहीं जा सकता। भविष्य में, न्यायपालिका को एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता होगी जो लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करे और साथ ही शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का सम्मान करे।