भारत में न्यायिक समीक्षा का विकास और महत्व

परिचय: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13, 32, 226 और 227 में न्यायिक समीक्षा की शक्ति निहित है। यह न्यायपालिका को कानूनों और कार्यकारी कार्यों की संवैधानिकता की जांच करने का अधिकार देता है। न्यायिक समीक्षा लोकतंत्र के स्तंभों में से एक है और संविधान की सर्वोच्चता सुनिश्चित करती है। इस लेख में हम भारत में न्यायिक समीक्षा के विकास, महत्व और चुनौतियों पर चर्चा करेंगे।

भारत में न्यायिक समीक्षा का विकास और महत्व

न्यायिक समीक्षा के प्रमुख आयाम

न्यायिक समीक्षा के तीन प्रमुख आयाम हैं। पहला, संवैधानिक संशोधनों की समीक्षा, जिसे केशवानंद भारती मामले में स्थापित किया गया था। दूसरा, केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा बनाए गए कानूनों की समीक्षा। तीसरा, प्रशासनिक कार्यों की समीक्षा। इन तीनों आयामों के माध्यम से न्यायपालिका संविधान की रक्षा करती है और नागरिकों के मौलिक अधिकारों की गारंटी देती है। उदाहरण के लिए, गोलकनाथ मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने मौलिक अधिकारों को संशोधन से परे रखा, हालांकि बाद में इस निर्णय को संशोधित किया गया।

महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय और उनका प्रभाव

कई महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णयों ने भारत में न्यायिक समीक्षा के दायरे को परिभाषित किया है। केशवानंद भारती मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के मूल ढांचे के सिद्धांत को स्थापित किया, जो संसद की संशोधन शक्ति पर सीमा लगाता है। मिनर्वा मिल्स मामले में, न्यायालय ने इस सिद्धांत की पुष्टि की। इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण मामले में, न्यायालय ने निष्पक्ष चुनाव के अधिकार को मौलिक अधिकार माना। इन निर्णयों ने न केवल कानूनी व्याख्या को प्रभावित किया, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य को भी आकार दिया।

न्यायिक सक्रियता और जनहित याचिका

1980 के दशक से, भारतीय न्यायपालिका ने न्यायिक सक्रियता का रुख अपनाया। जनहित याचिका (पीआईएल) की अवधारणा को विकसित किया गया, जिसने न्याय तक पहुंच को व्यापक बनाया। इसने गरीबों और वंचितों के लिए न्याय सुलभ बनाया। हालांकि, कुछ आलोचकों का मानना है कि इससे न्यायपालिका ने कार्यपालिका के क्षेत्र में प्रवेश किया है। फिर भी, जनहित याचिकाओं ने पर्यावरण संरक्षण, मानवाधिकारों की रक्षा और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उदाहरण के लिए, विशाखा मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ दिशानिर्देश जारी किए।

वर्तमान चुनौतियां और भविष्य की संभावनाएं

न्यायिक समीक्षा की शक्ति के साथ कई चुनौतियां भी जुड़ी हैं। एक प्रमुख चिंता न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच शक्तियों के पृथक्करण का संतुलन बनाए रखना है। कुछ का मानना है कि न्यायपालिका ने कभी-कभी अपनी सीमाओं को पार किया है। एक अन्य चुनौती न्यायिक नियुक्तियों की पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करना है। राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) अधिनियम को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा असंवैधानिक घोषित किया गया था, जो इस मुद्दे की जटिलता को दर्शाता है। भविष्य में, न्यायपालिका को तकनीकी प्रगति, वैश्वीकरण और नए उभरते कानूनी मुद्दों से निपटने के लिए तैयार रहना होगा।

निष्कर्ष

न्यायिक समीक्षा भारतीय लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है। यह संविधान की सर्वोच्चता सुनिश्चित करता है और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करता है। हालांकि इसकी आलोचना भी होती है, फिर भी इसने भारत के कानूनी और सामाजिक परिदृश्य को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भविष्य में, न्यायपालिका को अपनी स्वतंत्रता बनाए रखते हुए जनता के विश्वास को कायम रखना होगा। न्यायिक समीक्षा की शक्ति का संतुलित और जिम्मेदार उपयोग भारतीय लोकतंत्र को मजबूत करने में मदद करेगा।